Saturday 14 November 2015

सीख

कभी कभी वो परमेश्वर भी अपने होने का एहसास दिलाता है और बतलाता है कि वो हमसे कितना प्यार करता है,कितनी फ़िक्र करता है हमारी
इसी बात पे वसीम बरेलवी साहब का शेर याद आता है....
खुली छतों के दीये कब के बुझ गए होते
पर कोई तो है जो आँधियों के पर कतरता हैं
-वसीम बरेलवी

Paris Attacks

मजहब की किताबों का हवाला मत दे ऐ हैवान 
जिहाद शब्द तो उसमें कहीं पढ़ाया ही नहीं जाता 

#Paris_Attacks

Sunday 4 October 2015

सन्देश

गर जो तू दोस्त है,तो दोस्ती क्यों नहीं निभाता है
गर फ़िक्र होती  है तुझे मेरी,तो क्यों नहीं जताता है
गर वादा करता है मुझसे,तो निभाने से क्यों डरता है
गर तू मीत है मेरा,मेरी हर बात क्यों ठुकराता है
गर विश्वास है मुझपे,तो भी बतलाने से क्यों कतराता है
गर ये बस ज़िद है तेरी,तो क्यों इतनी खुदगर्जी दिखलाता है
ऐ दोस्त बता तू जब जरुरत होती है तेरी
तो तू कहाँ चला जाता है
तू कहाँ चला जाता है ...........तू कहाँ चला जाता है .....

Sunday 23 August 2015

आज़ादी इन दीवारों से


  1. मैं कोई शायर या कवि नहीं हाँ बस अभी डिस्चार्ज मोबाइल और लम्बे रस्ते ने और कोई रास्ता ही न छोड़ा |इन सब ने मजबूर नहीं किया लिखने को वो तो बस इस सफर में एक हसीन छाप छोड़ने का जी चाह रहा हैहाँ इसमें को भी कोई दो मत नहीं शायद ये एक सयोंग है जहाँ ये सब मेरी इच्छाओ के पूरक बनते दिख रहे है | स्ट्रीट लाइट की हलकी रौशनी और हिचकोले खाती टैक्सी में लिखना वाकई मुश्किल है,पर पता नहीं क्यों ये मौसम भी आज साथ दे रहा है |बेकार लगता है जब ये शीशे की दीवार आ जाती है मेरे और इन ठंडी खूबसूरत हवाओं के बीच में ये ऐसी का ढकोसला भी न हवा की छुअन से दूर कर कर रहा है मुझको हवा का झोंका जब चेहरे को छूता हुआ निकलता है तो लगता है मानो महबूबा का दुपट्टा चेहरे को छूता निकल गया हों | पर ये मुहब्बत्त के दुश्मन उबेर और ओला ने भी न हमें AC के जाल में कैद करने का उपाय ढूंढ लिया है क्या जरुरत है इस दीवार की जब बाहर जहान इतना खूबसरत और मौसम बेईमान हो रहा हैआखिर क्यों कोई बंद रहे इस कैद में जब बाहर बारिश की वो हलकी बुँदे पुकार रही हो मिलने कोये कोई सवाल नही है ये तो मन में उठती उन उम्मीदों का आइना है,जिसमे हम इस जिंदगी से कुछ हसीं के पल तलाश रहे है ऐसा नहीं है की मैं उनलोगो से सवाल कर रहा हूँ जो इस आराम के आदी हो या किसी को झुलसती गर्मी में तपने की सलाह दे रहा हूँमैं तो बस इसी भावना उजागर करने की कोशिश कर रहा हूँ कही एक दिन ऐसा वक़्त ना आये ज़िन्दगी में किहम इन ढकोसलों के बीच असली ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाना भूल जाए,हम भूल जाए कि इस शीशे कि दिवार के उस पार भी एक दुनिया है और वो दुनिया-२ इतनी हसीन और खूबसूरत है कि जो उसमे जाता है बस कही खो सा जाता है,बस उसका हो जाता है मैं आपको उस शीशे को तोड़ने नहीं कह रहा हूँ मई तो बस कह रहा हूँ कि ये मन के भीतर जो शीशे कि दीवार है उसको तोडिये उसको तोडिये और जीना सीखिये ताकि कल जब थोड़ा वक़्त बचा हो अपने हिस्से में तब आपका मन आपसे कोई सवाल ना पूछे मैंने सोच लिया मैंने सोच लिया और गिरा दिया है मैने शीशा आज,तोड़ दी है दीवार ,बस तोड़ दी है दीवार |

Thursday 9 April 2015

ज़िंदगी

 कुछ इस कदर ज़िन्दगी के दिन ढलते रहे, हम गिरते सम्भलते बस चलते रहे 
अपनी मंजिल की खोज में हम भटकते रहे ,बस वक़्त से कदम मिलाकर हम चलते रहे 

जब मिली मंजिल तो रास्ते ढूंढते रहे, लेकिन कैसे जाते जब राह से ही टलते रहे 

सपनो के पंखो से सदा उड़ान भरते रहे, और वास्तव में हवा के झोकों से भी डरते रहे 

जीत की चाह में इस कदर डूबे रहे, इसी चाह की ज्वाला में बस हम जलते रहे 

बस वक़्त के इंतज़ार में यूँ ठनते रहे, हम मस्त होकर सदा बस मन की सुनते रहे 
खुद टूटकर कुछ जोड़ने की चाहत में बढ़ते रहे, बस यही ज़िन्दगी हमारी जिसे हम लिखते रहे