कुछ इस कदर ज़िन्दगी के दिन ढलते रहे, हम गिरते सम्भलते बस चलते रहे
अपनी मंजिल की खोज में हम भटकते रहे ,बस वक़्त से कदम मिलाकर हम चलते रहे
अपनी मंजिल की खोज में हम भटकते रहे ,बस वक़्त से कदम मिलाकर हम चलते रहे
जब मिली मंजिल तो रास्ते ढूंढते रहे, लेकिन कैसे जाते जब राह से ही टलते रहे
सपनो के पंखो से सदा उड़ान भरते रहे, और वास्तव में हवा के झोकों से भी डरते रहे
जीत की चाह में इस कदर डूबे रहे, इसी चाह की ज्वाला में बस हम जलते रहे
बस वक़्त के इंतज़ार में यूँ ठनते रहे, हम मस्त होकर सदा बस मन की सुनते रहे
खुद टूटकर कुछ जोड़ने की चाहत में बढ़ते रहे, बस यही ज़िन्दगी हमारी जिसे हम लिखते रहे