याद है वो बचपन, इन्ही नन्हें हाथो से हमने वो फूल की एक-एक लड़ियाँ लगाते थे| वो मंडप सजाना,पंडाल लगवाना, वो हर एक तैयारी करना, बात बात पे झगड़ा करना- भैया आप एक भी काम ढंग से नहीं करते ! और करते भी क्यों न आखिरकार साल भर में एक ही तो मौका मिलता था खुद के स्कूल, कोचिंग या हॉस्टल को नंबर one साबित करने का | आज भी वो पल याद है जब हम अपनी तोतली आवाज़ में प्रार्थना भी ऐसे गाते थे जैसे कोई प्रतियोगिता चल रही हो- इतनी शक्ति हमें देना दाता.... मन का विश्वास कमजोर हो ना हम चले नेक रस्ते पे हमसे भूलकर भी कोई भूल हो ना |हमसब भी बड़ी सुर में उन लड़कियों के साथ गाते- हे शारदे माँ !हे शारदे माँ! अज्ञानता से हमें तार दे माँ | विसर्जन की शाम तो सबको याद होगी,उसके मोह से भला कौन बच पाया है हम इतनी तैयारियों के बाद अंत में नाच गाने के साथ माँ को विदा करते थे, इसी उम्मीद में अगले साल जीवन फिर इंद्रधनुषी रंगों से भर जाएगा | सब बच्चे एक कॉपी,किताब या कलम पूजा के वक्त माँ के चरणों में रखते थे, मैं अपनी माँ से पूछता माँ क्या सच में उस कलम से लिखने पर मैं टॉप करूँगा, माँ मेरे नादान सवालों पर बस मुस्कुरा कर रह जाती पर जो उनकी आँखों में दिखाई देता वो होता विश्वास | एक माँ का उस माँ के प्रति विश्वास जिसके हम सब बच्चे हैं | वो विश्वास ही तो है जो ज़िन्दगी के हर मोड़ पे मेरा साथ देता रहा है, चाहे मेरी माँ का हो या मेरी शारदे माँ का | तब उन चीज़ो के मायने अलग थे अब शायद ज़िंदगी के मायने बदल गए है, अगर कुछ नहीं बदला तो वो मेरा मन, मेरा मन जो आज भी खुद को उस बचपन में ढूंढ़ता है | इस दौड़-भाग या यूं कहे कि आधुनिकता के चक्कर में हमारी संस्कृति कहीं खो सी रही है,मानो लगता है वो बचपन अब इन कम्प्यूटरों, मोबाइल्स और तकनीक में कहीं खो सा गया है | आज भी मैं पूरी आत्मविश्वास से कह सकता हूँ वो कोई भी विद्यार्थी रहा हो, किसी भी धर्म का रहा हो लेकिन अगर वो कभी भी इस पूजा का साक्षी रहा होगा तो जरूर कहेगा, इससे खूबसूरत बचपन और कुछ नहीं हो सकता...........
या देवी सर्वभुतेषु मातृरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥
#सरस्वती पूजा
या देवी सर्वभुतेषु मातृरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥
#सरस्वती पूजा